Wednesday, March 19, 2025
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माँ नंदा के जयकारों से भक्तिमय हुए हिमालय के गांव।

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Vijaya Dimri
Vijaya Dimrihttps://bit.ly/vijayadimri
Editor in Chief of Uttarakhand's popular Hindi news website "Voice of Devbhoomi" (voiceofdevbhoomi.com). Contact voiceofdevbhoomi@gmail.com

जोशीमठ I   गढ़वाल की लोक परंपराओं में माँ नंदा का विशेष महत्व है। समूचे गढ़वाल हिमालय में नंदा को अलग-अलग रूपों में पूजा जाता है नंदा का उत्सव मनाया जाता है। गढ़वाल के दूरस्थ गांवों में आम जनमानस में रची बसी माँ नंदा को बेटी के रूप में मानते है तथा हर वर्ष भाद्रपद की नंदा अष्ठमी को कैलाश से बुलावा भेजा जाता है और दो से तीन दिनों की विशेष पूजा अर्चना के बाद माँ नंदा की कैलास विदाई होती है। इसके इतर हर एक वर्ष में वार्षिक जात, 6 वर्ष में अर्धवार्षिक जात और 12 वर्षों में हिमालयी महाकुम्भ नंदा देवी राजजात माँ नंदा के महोत्सवों में से एक है। गढ़वाल-कुमाऊँ की अधिष्ठात्री माँ नंदा यहां के जीवन और लोक पफम्परों में रची-बसी है। गढ़वाल हिमालय के पर्वतीय अंचलों में बसे गांवों में भाद्रपद के शुक्लपक्ष की अष्ठमी को “नंदा अष्ठमी मेला” भब्य रूप से आयोजित किया जाता है और नंदा के साथ सभी देवी-देवताओं न्योता दिया जाता है। ये परम्पराएं गढ़वाल, कुमाऊँ के साथ पैनखंडा के दर्जनों गांवों में वर्षों से अविरल रूप से आयोजित की जा रही है। माँ नंदा का अपने भाई लाटू और भूमियाल से मिलान अद्भुत होता है और सबको भावविभोर कर देता है।
हिमालय वासियों की आराध्य देवी नंदा, जिसे यहाँ के वासिंदे भगवती नंदा के रूप में सदियों से पूजते आ दही है। भाद्रपद की शुक्लपक्ष की अष्ठमी को पहाड़ के गांवों में नंदा अष्ठमी मेले का भब्य आयोजन होता है। किसी-किसी गांवों में भाद्रपद माह की शुक्लपक्ष की सप्तमी को तो कहीं पूर्णमासी तिथि को भी इस मेले का आयोजन किया जाता है। आयोजन की शुरुआत एक दिन पहले रीति-नीति के साथ फुलारियों को उच्च हिमालयी क्षेत्र कैलास से नंदा को न्योते के लिए भेजा जाता है जो दूसरे दिन ब्रह्मकमल को लेकर आते है जिसे माँ नंदा का मायके में आगमन समझा जाता है और उसी दिन से नंदा अष्ठमी मेले की शुरुआत हो जाती है।
पौराणिक लोक मान्यता हैं कि कैलाशपति शिव शंकर भोलेनाथ विवाह के बाद पहली बार भाद्रपद की अष्ठमी को देवी नंदा अपने मायके आयी थी। पूरे हिमालयी क्षेत्र में उसी मान्यता के अनुसार अलग-अलग रीति-नीति के साथ साथ अष्ठमी मेले को मनाया जाता है।
माँ नंदा के कैलाश आगमन के साथ अष्ठमी मेले का आयोजन शुरू हो जाता है। पूरे रातभर नंदा के जागर, झुमेला और देव पस्वाओं का अवतरण उनका खड्ग लेना नृत्य करना, क्षेत्र में लोगों को खुशहाल जीवन का आशीर्वाद देने और उनकी कुशल-छेम पूछना अपने आप में अलौगिक और अद्भुत है।
जिस तरह से क्षेत्र में माँ नंदा के आगमन से उल्लास, उमंग और ख़ुशी का माहौल रहता है उसी प्रकार माँ नंदा की कैलाश विदाई अत्यंत भावुक और दुःखदायी होती है। पूरे क्षेत्रवासी नम और भावुक आँखों से नंदा को कैलाश विदा करते है।
मान्यता यह भी है कि पहाड़ों में नंदा अष्ठमी के बाद ठण्ड लौट आती है और वर्ष के छः माह उच्च हिमालयी क्षेत्रों में अपनी भेड़-बकरियों के साथ रहते है वो भी तराई क्षेत्रों की ओर लौटने लगते है।
वाकई भगवती नन्दा का ये महोत्सव, मेला हिमालयी क्षेत्रों के जीवन में रची-बसी एक अनमोल और मजबूत संस्कृति है। आम जीवन की उम्मीद और जीवन रेखा यहाँ के लोगों की बेजोड़ संस्कृति है।

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